
नेशनल डेस्क, श्रेया पांडेय |
छगन भुजबल का बड़ा बयान: 'इस देश में धर्म बदल सकते हैं, जाति नहीं'...
मुंबई: महाराष्ट्र के वरिष्ठ नेता और राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी (एनसीपी) के कद्दावर नेता छगन भुजबल ने हाल ही में एक सार्वजनिक कार्यक्रम में एक ऐसा बयान दिया है, जिसने राजनीतिक और सामाजिक गलियारों में हलचल मचा दी है। उन्होंने कहा कि "इस देश में लोग धर्म तो बदल सकते हैं, लेकिन जाति नहीं।" यह बयान न सिर्फ एक सामाजिक टिप्पणी है, बल्कि भारतीय समाज की जटिलताओं और ऐतिहासिक सच्चाइयों की ओर भी इशारा करता है। भुजबल का यह बयान ऐसे समय में आया है जब देश में जातिगत जनगणना और आरक्षण जैसे मुद्दों पर तीखी बहस चल रही है।
भुजबल, जो खुद ओबीसी समुदाय से आते हैं, लंबे समय से सामाजिक न्याय और आरक्षण के मुखर समर्थक रहे हैं। उन्होंने अपने बयान में यह समझाने की कोशिश की कि भारत में जाति एक ऐसी पहचान है जो व्यक्ति के जन्म के साथ जुड़ी होती है और जीवन भर उसके साथ रहती है। उन्होंने कहा कि भले ही कोई व्यक्ति अपना धर्म बदल ले—जैसे कि हिंदू से ईसाई या मुस्लिम बन जाए—लेकिन उसकी मूल जातिगत पहचान, जैसे कि 'दलित' या 'ओबीसी', उसके साथ बनी रहती है।
उन्होंने उदाहरण देते हुए कहा कि अगर कोई 'दलित' व्यक्ति धर्म परिवर्तन करके बौद्ध या मुस्लिम बन जाता है, तो भी समाज के कुछ वर्गों में उसे उसकी पुरानी जाति से ही पहचाना जाता है। यह एक कड़वी सच्चाई है जो भारतीय समाज की गहरी जड़ों में समाई हुई है। भुजबल ने इस बात पर जोर दिया कि धर्म परिवर्तन से सामाजिक और आर्थिक असमानता की समस्या हल नहीं होती, क्योंकि जाति-आधारित भेदभाव अभी भी जारी रहता है।
भुजबल का यह बयान जातिगत जनगणना की मांग के संदर्भ में भी महत्वपूर्ण है। कई राजनीतिक दल और सामाजिक संगठन यह मांग कर रहे हैं कि देश में जाति आधारित जनगणना होनी चाहिए ताकि विभिन्न जातियों की वास्तविक संख्या और उनकी सामाजिक-आर्थिक स्थिति का सही पता लगाया जा सके। भुजबल ने भी इस मांग का समर्थन किया है और कहा है कि जब तक हमें सटीक आंकड़े नहीं मिलेंगे, तब तक हम प्रभावी नीतियां नहीं बना सकते।
उनके इस बयान को लेकर राजनीतिक प्रतिक्रियाएं भी आनी शुरू हो गई हैं। कुछ लोग उनके बयान को यथार्थवादी और साहसी बता रहे हैं, जबकि कुछ अन्य इसे विभाजनकारी मान रहे हैं। विपक्षी दलों ने उनके बयान का समर्थन करते हुए कहा है कि यह भारतीय समाज की एक मूलभूत समस्या को उजागर करता है। वहीं, सत्तारूढ़ दल के कुछ नेताओं ने इस पर चुप्पी साध रखी है, क्योंकि यह एक संवेदनशील मुद्दा है।
छगन भुजबल ने अपने बयान में आगे कहा कि जब तक जातिगत भेदभाव को पूरी तरह से समाप्त नहीं किया जाता, तब तक 'समता' और 'समानता' की बातें केवल खोखली ही रहेंगी। उन्होंने समाज के सभी वर्गों से आह्वान किया कि वे इस मुद्दे पर गंभीरता से विचार करें और जाति के आधार पर होने वाले भेदभाव को समाप्त करने के लिए मिलकर काम करें।
कुल मिलाकर, छगन भुजबल का यह बयान सिर्फ एक राजनीतिक टिप्पणी नहीं है, बल्कि भारतीय समाज की गहरी और जटिल समस्याओं पर एक सीधी टिप्पणी है। यह दिखाता है कि भारत में धर्म और जाति दोनों ही पहचान के महत्वपूर्ण हिस्से हैं, लेकिन जाति की पहचान अधिक स्थायी और गहरी है, जिसे धर्म परिवर्तन भी नहीं मिटा सकता। यह बहस आने वाले दिनों में और भी तेज हो सकती है, खासकर जब देश में चुनाव नजदीक आ रहे हैं और जातिगत राजनीति का महत्व बढ़ रहा है।