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पोलिटिकल ट्विस्ट: बिहार की सियासत में भूमिहारों का बढ़ता क़द

स्पेशल रिपोर्ट, आकाश अस्थाना ।

करीब 3% आबादी वाले ब्रह्मर्षि समाज से इस बार 71+ प्रत्याशी मैदान में; भाजपा, जदयू, कांग्रेस, जनसुराज और राजद सभी ने जताया भरोसा..... जातिगत संतुलन की नई राजनीति में भूमिहारों की भूमिका सबसे निर्णायक।

पटना: बिहार की राजनीति में इस बार का विधानसभा चुनाव एक दिलचस्प जातीय मोड़ लेता दिख रहा है। 243 सदस्यीय विधानसभा में जहां दलित, पिछड़ा और अति-पिछड़ा वर्गों की राजनीति करीब तीन दशकों से वर्चस्व में रही है, वहीं इस बार सभी प्रमुख दलों की नज़र ब्रह्मर्षि समाज यानी भूमिहार के साथ - साथ ब्राह्मण, राजपूत, कायस्थ और अन्य सवर्णों और खासतौर पर भूमिहार वोट बैंक पर टिक गई है।

आंकड़ों के मुताबिक़, अब तक घोषित उम्मीदवारों की सूची में विभिन्न दलों ने ब्रह्मर्षि समाज से करीब 71 प्रत्याशियों को मैदान में उतारा है। यानी, कुल सीटों का लगभग 27% हिस्सा इस 3% आबादी वाले समुदाय के नेताओं को मिल रहा है जो अपने आप में एक बड़ा राजनीतिक संकेत है।

कौन कितनी उम्मीद लगा रहा है ब्रह्मर्षि समाज से?

अगर पार्टियों के हिसाब से देखें तो भाजपा सबसे आगे दिख रही है। पार्टी ने अकेले 16 भूमिहार नेताओं पर दांव खेला है, जिनमें लखीसराय से विजय सिन्हा, जाले से जीवेश मिश्रा, गोह से रणविजय कुमार जैसे नाम सियासी तराजू पर बड़े वजनदार माने जा रहे हैं। भाजपा का यह भरोसा इस समुदाय पर नया नहीं है; बिहार में भूमिहारों को हमेशा पार्टी के “बौद्धिक और संगठनात्मक स्तंभ” के रूप में देखा गया है।

जदयू ने भी 9 ब्रह्मर्षि प्रत्याशियों को टिकट दिया है। विजय चौधरी, ऋतुराज कुमार, शालिनी मिश्रा जैसे नाम जदयू की सामाजिक संतुलन साधने की नीति का हिस्सा हैं, जहां दलित-पिछड़े वोट बैंक के साथ-साथ सवर्णों को भी साधने की कोशिश साफ नज़र आती है।

राजद जैसी पार्टी, जो खुद को “गरीबों और पिछड़ों की आवाज़” कहती है, उसने भी लालगंज से दिग्गज मुन्ना शुक्ला की बेटी शिवानी शुक्ला समेत 5 ब्रह्मर्षि प्रत्याशियों को मैदान में उतारा है। यह पार्टी की रणनीतिक सोच का हिस्सा माना जा रहा है ताकि सवर्णों के बीच अपनी छवि को संतुलित किया जा सके।

कांग्रेस, जो ऐतिहासिक रूप से सवर्ण समर्थन की पार्टी रही है, ने इस बार भी पूर्वी चम्पारण के गोविंदगंज समेत अन्य क्षेत्रों से 12 से ज़्यादा भूमिहार प्रत्याशी उतारे हैं। वहीं जनसुराज, पुष्पम प्रिया चौधरी की पार्टी और अन्य छोटे दल जैसे हम, रालोसपा, और लोजपा (रामविलास) ने भी कुल मिलाकर 25 से अधिक ब्रह्मर्षि चेहरों को टिकट दिया है।

आख़िर क्यों बढ़ रहा है भूमिहारों का सियासी महत्व?

बिहार की सामाजिक संरचना में भूमिहारों की आबादी भले ही महज़ 3% के आस-पास हो, मगर यह वर्ग राजनीतिक रूप से सजग, संगठित और आर्थिक रूप से मजबूत माना जाता है।
यह समुदाय न केवल चुनावी चंदा, मीडिया प्रभाव और विचारधारात्मक समर्थन देने में सक्षम है, बल्कि ग्रामीण क्षेत्रों में विचार-निर्माण में भी अहम भूमिका निभाता है। एक विश्लेषक के अनुसार 3 फीसदी भूमिहार लगभग 30 फीसदी वोट को प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष तौर पर प्रभावित करता है।  इसके अलावा, भूमिहार वोटर अक्सर अपने क्षेत्रीय उम्मीदवारों के पक्ष में एकजुट होकर मतदान करता है यही वजह है कि दलों को इस समुदाय में “कम संख्या, ज़्यादा असर” का सूत्र दिखता है।

नए समीकरण: जातीय बैलेंस की राजनीति

2025 के चुनाव में सभी दलों ने अपनी जातीय बिसात नई तरह से बिछाई है। जहां पिछड़े वर्ग (OBC) और अति-पिछड़े (EBC) के बीच कुर्मी, यादव, कोइरी, कुशवाहा वोटों को साधने की होड़ मची है, वहीं सवर्ण जातियों; खासकर भूमिहारों को हर दल एक “फिक्स्ड इंटेलेक्चुअल वोटबैंक” के रूप में देख रहा है।

विशेषज्ञों के अनुसार, भूमिहार समुदाय शिक्षित वर्ग, शिक्षक, डॉक्टर, इंजीनियर, मीडिया और प्रशासनिक सेवा में उल्लेखनीय उपस्थिति रखता है। ऐसे में किसी भी दल के लिए यह समुदाय “मत से ज्यादा माहौल” बनाने में मददगार साबित होता है।

क्या है इसके पीछे की राजनीतिक रणनीति?\

  • NDA की रणनीति:

भाजपा-जदयू गठबंधन के लिए यह समुदाय “रीढ़” की तरह काम करता है। भाजपा जहां हिंदुत्व और विकास की राजनीति से इसे जोड़ती है, वहीं जदयू जातीय संतुलन के नाम पर सवर्णों को नाराज़ नहीं करना चाहती।

  • महागठबंधन की कोशिश:

राजद और कांग्रेस इस बार भूमिहारों में अपनी स्वीकार्यता बढ़ाने की कोशिश कर रहे हैं। वीणा देवी, रवि रंजन, अजीत शर्मा जैसे उम्मीदवार इसका उदाहरण हैं। गौरतलब है कि राजद को अगर अपनी जंगलराज वाली छवि ने निकलना है तो उसके लिए भूमिहारों का सर्टिफिकेट जरूरी है क्योंकि उस जंगलराज का खामियाजा सबसे ज्यादा बिहार के भूमिहारों ने ही झेला।

  • नए दलों की रणनीति:

जनसुराज जैसे उभरते संगठन इस वर्ग को “सोच और ईमानदारी की राजनीति” से जोड़ना चाहते हैं, ताकि सवर्ण वोटरों का एक वैकल्पिक समूह तैयार हो सके।

आगे का समीकरण?

राजनीतिक विश्लेषकों का मानना है कि अगर यह रुझान इसी तरह जारी रहा तो ब्रह्मर्षि समाज का प्रतिनिधित्व पहली बार 70+ के आंकड़े के करीब पहुंच सकता है जो अब तक का रिकॉर्ड होगा। यह न केवल सवर्ण राजनीति का पुनरुत्थान साबित होगा, बल्कि बिहार की सियासत में “विचार और वर्ग” के नए समीकरण को भी जन्म देगा।

बिहार की चुनावी जंग में यह साफ़ दिख रहा है कि जाति अब भी सियासत की सबसे मजबूत जमीन है, और इस बार की बिसात में ब्रह्मर्षि समाज केंद्र में है। इबीसी, ओबीसी और दलित वोटों के साथ अब सवर्णों की गोलबंदी भी पार्टियों के लिए उतनी ही जरूरी हो गई है। यानी 2025 का बिहार चुनाव सिर्फ संख्याओं की लड़ाई नहीं, बल्कि समीकरणों की नई परिभाषा गढ़ने वाला चुनाव साबित होने जा रहा है।