
नेशनल डेस्क, मुस्कान कुमारी |
भोपाल का '90 डिग्री पुल' निकला 118-119 डिग्री: सोशल मीडिया विवाद से कोर्ट तक, अब सरकार ने मांगा और वक्त....
भोपाल का बहुचर्चित ‘90 डिग्री पुल’, जिसे उसके तीखे मोड़ के कारण सोशल मीडिया पर लंबे समय तक मज़ाक और आलोचना झेलनी पड़ी, अब तकनीकी रिपोर्ट के बाद नए सिरे से चर्चा का विषय बना है। हाईकोर्ट में पेश विशेषज्ञ रिपोर्ट ने साफ कर दिया कि यह पुल वास्तव में 90 डिग्री का नहीं, बल्कि 118-119 डिग्री के कोण पर बना है। इस खुलासे ने पूरे मामले का रुख बदल दिया है और प्रदेश सरकार ने पुल निर्माण कंपनी को ब्लैकलिस्ट करने के अपने फैसले पर पुनर्विचार के लिए अदालत से अतिरिक्त समय मांगा है।
विशेषज्ञ रिपोर्ट से बदला विवाद का रुख
विशेषज्ञ द्वारा मध्य प्रदेश हाईकोर्ट में दाखिल रिपोर्ट में कहा गया है कि पुल का डिज़ाइन किसी तकनीकी खामी का परिणाम नहीं है, बल्कि यह ‘जनरल अरेंजमेंट ड्राइंग (GAD)’ के अनुरूप है, जिसे सरकारी एजेंसी ने ही स्वीकृत किया था। रिपोर्ट ने यह भी इशारा किया कि जो मोड़ अब तक “90 डिग्री” कहकर जनता के बीच चर्चा में था, वह तकनीकी रूप से 118-119 डिग्री का है।
इस निष्कर्ष के बाद प्रदेश सरकार ने अदालत को सूचित किया है कि पहले जिस निर्माण कंपनी, मेसर्स पुनीत चड्ढा, को ब्लैकलिस्ट किया गया था, उसके खिलाफ निर्णय पर पुनर्विचार किया जाएगा। सरकार ने अदालत से कहा है कि तकनीकी पहलुओं का अध्ययन और कानूनी प्रक्रिया के मद्देनज़र उसे और समय दिया जाए।
पब्लिक आक्रोश और सोशल मीडिया का दबाव
इस पुल की चर्चा तकनीकी रिपोर्ट से कहीं पहले शुरू हो चुकी थी। असामान्य और खतरनाक प्रतीत होने वाले मोड़ की तस्वीरें और वीडियो सोशल मीडिया पर वायरल हुए और आम जनता के बीच सुरक्षा को लेकर चिंता गहराने लगी।
लोगों ने इसे ‘90 डिग्री पुल’ का नाम दिया और मज़ाक उड़ाते हुए इसे संभावित दुर्घटनाओं का कारण बताया। यही जनाक्रोश आगे चलकर राजनीतिक दबाव और प्रशासनिक कार्रवाई में तब्दील हुआ। नतीजतन, सरकार ने तत्काल कंपनी पर सख्ती दिखाते हुए ब्लैकलिस्ट करने का कदम उठाया था।
डिजाइन में लगातार हुए बदलाव
मामले की जड़ में लोक निर्माण विभाग (PWD) और रेलवे के बीच समन्वय की कमी रही। पुल का मूल डिज़ाइन कई बार बदला गया। दोनों विभागों के बीच मतभेदों के चलते न केवल काम की अवधि प्रभावित हुई, बल्कि बार-बार बदलाव के कारण प्रोजेक्ट की गुणवत्ता और उपयोगिता पर भी सवाल खड़े हुए।
विशेषज्ञों का कहना है कि इस तरह के बड़े इंफ्रास्ट्रक्चर प्रोजेक्ट्स में विभागीय समन्वय बेहद अहम होता है, और इसकी कमी सीधे तौर पर निर्माण की गुणवत्ता और सार्वजनिक विश्वास को प्रभावित करती है।
जांच समिति की सख्त टिप्पणियां
मामले ने जब ज़ोर पकड़ा, तब सरकार ने एक जांच समिति गठित की। समिति की रिपोर्ट में दो प्रमुख खामियों को चिन्हित किया गया—
- PWD और रेलवे के बीच समन्वय और संवाद की कमी
- पुल के खंभों की दूरी निर्धारित मानकों के अनुसार न होना
समिति ने इन खामियों को गंभीर माना और टिप्पणी की कि ऐसी लापरवाहियों से न केवल परियोजना की विश्वसनीयता प्रभावित होती है बल्कि सार्वजनिक सुरक्षा पर भी प्रश्नचिह्न लग जाता है।
अदालत में सरकार की नई रणनीति
विशेषज्ञ रिपोर्ट के बाद सरकार ने अदालत से यह साफ कर दिया है कि वह मामले की फिर से समीक्षा करना चाहती है। अतिरिक्त समय मांगकर सरकार ने संकेत दिया है कि ब्लैकलिस्टिंग जैसे कठोर निर्णय को फिलहाल रोका जा सकता है।
अदालत में दलील दी गई कि तकनीकी निष्कर्ष सामने आने के बाद जल्दबाज़ी में कोई अंतिम फैसला लेना उचित नहीं होगा। इससे साफ है कि प्रशासन अब संतुलित और निष्पक्ष निर्णय लेने की दिशा में आगे बढ़ना चाहता है।
सोशल मीडिया बनाम तकनीकी हकीकत
भोपाल का यह पुल अब केवल एक निर्माण परियोजना नहीं रहा, बल्कि यह सोशल मीडिया के दबाव और तकनीकी हकीकत के बीच खींचतान का प्रतीक बन गया है। जहां जनता ने ‘90 डिग्री पुल’ कहकर इसे विवादों में ला दिया, वहीं विशेषज्ञ रिपोर्ट ने यह दिखाया कि वास्तविकता इससे अलग है।
इस प्रकरण ने यह भी उजागर किया कि सरकारें और प्रशासन किस तरह जनता की धारणा और सोशल मीडिया के असर में त्वरित निर्णय लेते हैं, और बाद में तकनीकी तथ्यों के आधार पर उन्हीं फैसलों की समीक्षा करनी पड़ती है।
बड़ा सवाल
पूरा मामला एक बार फिर यह सवाल उठाता है कि क्या बड़े इंफ्रास्ट्रक्चर प्रोजेक्ट्स में समन्वय की कमी और जल्दबाज़ी से लिए गए फैसले जनता के हित में हैं? पुल की डिज़ाइन पर विवाद और उसके बाद की घटनाओं ने दिखा दिया है कि तकनीकी प्रक्रिया और प्रशासनिक निर्णय के बीच अगर सामंजस्य न हो तो विवाद और अव्यवस्था तय है।