
नेशनल डेस्क,श्रेयांश पराशर l
"राज्यपाल रबर स्टाम्प नहीं, पर विधेयक रोकना गलत: केंद्र"
राज्यपालों की भूमिका को लेकर लगातार उठ रहे सवालों के बीच केंद्र सरकार ने बुधवार को उच्चतम न्यायालय में स्पष्ट किया कि विधायिकाओं द्वारा पारित विधेयकों पर राज्यपालों को अनिश्चितकाल तक चुप बैठना संविधान की भावना के अनुरूप नहीं है। केंद्र ने दलील दी कि लोकतांत्रिक व्यवस्था में यह आवश्यक है कि विधानमंडलों द्वारा पारित विधेयकों पर राज्यपाल समयबद्ध तरीके से निर्णय लें, ताकि शासन प्रक्रिया बाधित न हो।
हालांकि, केंद्र का यह भी कहना था कि अधिकांश राज्यपालों ने अपनी संवैधानिक जिम्मेदारियों का निर्वहन वैसे ही किया है, जैसा सर्वोच्च न्यायालय अपेक्षा करता रहा है। केवल कुछ अपवादों को छोड़कर राज्यपालों ने विधेयकों को लेकर अपेक्षित कदम उठाए हैं।
सॉलिसिटर जनरल तुषार मेहता ने मुख्य न्यायाधीश डी.वाई. चंद्रचूड़ और न्यायमूर्ति बी.आर. गवई की अध्यक्षता वाली पांच-सदस्यीय संविधान पीठ के सामने तर्क दिया कि राज्यपाल मात्र “रबर स्टाम्प” नहीं होते। उनका दायित्व केवल विधेयकों पर हस्ताक्षर करने तक सीमित नहीं है, बल्कि वे संविधान के संरक्षक होने के नाते आवश्यक विवेकाधिकार का भी प्रयोग कर सकते हैं।
यह बहस ऐसे समय हो रही है जब कई राज्यों में विपक्षी दल यह आरोप लगाते रहे हैं कि राज्यपाल जानबूझकर सरकार द्वारा पारित विधेयकों को मंजूरी देने में देरी कर रहे हैं। इससे न केवल शासन में अड़चनें आ रही हैं बल्कि केंद्र-राज्य संबंधों पर भी असर पड़ रहा है।
केंद्र का रुख साफ करता है कि सरकार भी राज्यपालों द्वारा अनिश्चितकालीन टालमटोल को अनुचित मानती है, लेकिन उनकी संवैधानिक हैसियत को भी स्वीकार करती है। इस पूरे विवाद ने एक बार फिर सवाल खड़ा किया है कि राज्यपाल की संवैधानिक भूमिका महज औपचारिक है या फिर उनके पास वास्तविक विवेकाधिकार की भी शक्ति है।
यह मामला आगे चलकर न केवल राज्यों और केंद्र के संबंधों को प्रभावित करेगा बल्कि भारतीय लोकतंत्र की संवैधानिक संरचना को भी नई दिशा दे सकता है।