स्टेट डेस्क, मुस्कान कुमारी |
गोह: औरंगाबाद जिले की गोह विधानसभा सीट पर 11 नवंबर को मतदान होने वाला है, लेकिन 48 साल पुरानी एक खूनी याद आज भी इलाके को झकझोर रही है। 10 जून 1977 को सागरपुर मतदान केंद्र पर दबंगों की बमबारी और गोलीबारी में आठ ग्रामीण शहीद हो गए थे। यह हिंसा मताधिकार बचाने के लिए हुई, जब इमरजेंसी के बाद पहली बार गरीब और पिछड़े वर्ग के लोग वोट की ताकत समझ रहे थे। सभी आठ शहीद यादव समुदाय के थे, जिनमें गोविंदपुर गांव के चार लोग शामिल थे। 56 लोग घायल हुए, मगर वोटिंग नहीं रुकी। देश की सबसे बड़ी चुनावी हिंसा बन चुकी यह घटना आज भी बिहार के लोकतंत्र को सबक देती है।
सागरपुर बूथ अब वीरान पड़ा है, ग्रामीण सुजान में वोट डालते हैं। नक्सल प्रभावित इस इलाके में मतदान प्रतिशत कम रहता है, लेकिन शहीदों की कुर्बानी लोगों को बूथ तक ला खड़ा करती है। चुनाव आयोग या सरकार ने कभी शहीदों को सम्मान नहीं दिया, मगर गोविंदपुर में बना मताधिकार स्मारक उनकी याद को जिंदा रखे हुए है। प्रचार थम चुका है, प्रत्याशी स्मारक पर मत्था टेक चुके हैं। 11 नवंबर को गांववासी शहीदों को सलाम करते हुए वोट डालेंगे।
खूनी सुबह का भयावह मंजर: बम-गोली से लाल हुई मतदान की मिट्टी
1977 का विधानसभा चुनाव इमरजेंसी हटने के बाद लोकतंत्र की नई सुबह था। जनता पार्टी की लहर में गोह के पिछड़े गांवों—गोविंदपुर, अजान, सुजान, नेयामतपुर सहित आठ इलाकों—के सैकड़ों लोग पगडंडियों पर चलकर सागरपुर बूथ पहुंचे। गरीब किसान-मजदूर पहली बार वोट को हथियार मान रहे थे। लेकिन सामंती दबंगों को यह बर्दाश्त नहीं हुआ। वे नहीं चाहते थे कि यादव, दलित और पिछड़े मतदान करें।
सुबह करीब 9 बजे दबंग टोली ने बूथ पर हमला बोल दिया। मकसद—बूथ लूटना और गरीबों को भगाना। ग्रामीणों ने लाठियां थाम मुकाबला किया। फिर बम फटे, गोलियां चलीं। धुएं और चीखों के बीच आठ युवा ढेर हो गए। गोविंदपुर की लालकल्या देवी के पति और देवर भी शहीदों में थे उस वक्त उनकी गोद में एक दिन का बच्चा था। घायलों में राजनंदन यादव उर्फ विधायक यादव और रामनारायण यादव शामिल थे, जिनकी छाती और शरीर पर आज भी गोलियों के निशान हैं।
पूरे बिहार में उस चुनाव में 28 मौतें हुईं, लेकिन सागरपुर की हिंसा सबसे क्रूर थी। वरिष्ठ पत्रकार श्रीकांत की किताब में इसे देश की पहली बड़ी बूथ कैप्चरिंग बताया गया। हैरत की बात—इतनी खूनखराबे के बावजूद चुनाव आयोग ने बूथ रद्द नहीं किया। वोटिंग जारी रही, दबंगों की साजिश नाकाम हुई, मगर आठ जिंदगियां चली गईं।
शहीद परिवारों का दर्द: 48 साल बाद भी आस चुनाव आयोग से
आज गोह के हर घर में उन आठ शहीदों के नाम गूंजते हैं। लालकल्या देवी अब भी जिंदा हैं, गांववालों से कहती हैं, "वोट जरूर डालो, ये उन बहादुरों का हक है।" घायल राजनंदन यादव की आंखें नम हो जाती हैं, "लाठियां थीं हमारे पास, गोलियां उनके। छाती में दर्द आज भी है, मगर गर्व कि हारे नहीं।" रामनारायण यादव बताते हैं, "परिजन आस लगाए हैं कि चुनाव आयोग मरणोपरांत प्रशस्ति पत्र दे, ताकि बच्चे जानें लोकतंत्र की कीमत।"
परिवार खेती और मजदूरी से गुजारा करते हैं। बुजुर्ग बिजेंद्र यादव कहते हैं, "उनकी कुर्बानी ने सिखाया—वोट हथियार है, दबंग दबा नहीं सकते।" घटना ने गोह ही नहीं, पूरे बिहार के पिछड़े इलाकों में जागृति पैदा की। नक्सल साये में आज भी हिंसा का डर है, मगर शहीदों की याद हौसला देती है।
स्मारक की ज्योति: भूले इतिहास को जिंदा करने की मुहिम
48 साल बाद जिला पार्षद प्रतिनिधि श्याम सुंदर ने निजी कोष से गोविंदपुर में मताधिकार स्मारक बनवाया। पत्रकारिता छोड़ राजनीति में आए श्याम ने इसे शहीदों का जीवंत प्रतीक बनाया। 16 जून 2025 को दिल्ली विश्वविद्यालय के पूर्व प्रोफेसर डॉ. लक्ष्मण यादव ने अनावरण किया। डॉ. यादव बोले, "सागरपुर की शहादत बयां करती है—लोकतंत्र खून से सींचा जाता है। 11 नवंबर को डरना नहीं, डटना है।"
महागठबंधन और जनसुराज के प्रत्याशी स्मारक पर मत्था टेक चुके हैं। पूर्व पंचायत समिति सदस्य राजेंद्र यादव कहते हैं, "11 नवंबर को सुबह 7 से शाम 6 बजे तक बूथ पर होंगे। पुरखों की कुर्बानी को सलाम।" मतदान बाद शाम को स्मारक पर दीप जलेंगे। 14 नवंबर को नतीजे आएंगे, मगर यह कहानी युगों तक प्रेरणा देती रहेगी।
1977 के चुनावों ने बिहार में जाति हिंसा का नया रूप दिखाया। गोह की घटना साबित करती है—लोकतंत्र की जड़ें मजबूत हैं, मगर कुर्बानियां अपरिहार्य। नक्सल इलाके में सुरक्षा कड़ी है, लेकिन शहीदों की कमी खलती रहेगी। ग्रामीणों का संकल्प—वोट डालकर उस खूनी सुबह का गवाह बनेंगे।







