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गरबा की 36 शैलियों में झलकती गुजरात की सांस्कृतिक आत्मा

नेशनल डेस्क, मुस्कान कुमारी |

गुजराती गरबा का जादू: बेठा की शांति से रास की उग्रता तक, 36 शैलियों में सिमटी गुजरात की आत्मा

अहमदाबाद: नवरात्रि की धुन पर थिरकता गुजरात का गरबा महज एक नृत्य नहीं, बल्कि सदियों की सांस्कृतिक यात्रा का जीवंत दस्तावेज है। वैदिक काल से विकसित यह परंपरा आज 36 से अधिक शैलियों में बिखरी हुई है, जो गुजरात के हर कोने समुद्र तटों से पहाड़ी इलाकों तक की कहानी बयां करती है। इतिहासकार सरू सुब्बा की मान्यता है कि "गरबा की यह अनोखी विविधता गुजरात के उस ऐतिहासिक चौराहे से उपजी है, जहां व्यापार के रास्ते, प्रवास की लहरें और क्षेत्रीय पहचानें आपस में घुलमिल गईं।" मां दुर्गा की आराधना से जुड़ा यह नृत्य नागर ब्राह्मणों की शांत भक्ति से लेकर मेर योद्धाओं की ताकतवर थिरकन तक फैला है, जिसमें कोली मछुआरों की लयबद्ध चालें और राबारी चरवाहों की अनुग्रहपूर्ण मुद्राएं शामिल हैं। इस साल नवरात्रि में लाखों लोग इन शैलियों के माध्यम से गुजरात की एकता को महसूस कर रहे हैं, जो सामाजिक बंधनों को तोड़ने का माध्यम बन चुकी है।

गरबा की जड़ें प्राचीन ग्रंथों में हैं, जहां 'गर' का अर्थ गर्भ और 'बा' का अर्थ धारक है देवी के गर्भ रूप की स्तुति। लेकिन गुजरात की भौगोलिक विविधता ने इसे अनगिनत रूप दिए। सौराष्ट्र के तटीय गांवों में यह समुद्री लहरों जैसा उफान मारता है, जबकि कच्छ के रेगिस्तानी इलाकों में धीमी, मापी हुई चालें लेता है। विशेषज्ञ बताते हैं कि ब्रिटिश काल में गुजराती व्यापारियों ने इस नृत्य को पूर्वी अफ्रीका और दक्षिण-पूर्व एशिया तक पहुंचाया, जहां आज भी स्थानीय संस्कृतियों के साथ मिश्रित रूप देखने को मिलते हैं। आधुनिक समय में बॉलीवुड के गीतों ने इसे युवाओं की पसंद बना दिया, लेकिन मूल शैलियां अब भी जीवित हैं, जो नवरात्रि के नौ रंगों को 36 रंगों में बदल देती हैं।

 बेठा गरबा: जहां भक्ति बैठकर भी थिरकती है

गरबा की सबसे रहस्यमयी और शांत शैली है बेठा गरबा, जो वडनगरा नागर समुदाय की महिलाओं का गौरव है। कल्पना कीजिए—एक गोला बनाकर बैठी महिलाएं, हाथों में तालियां, होंठों पर भक्ति भजन, और आंखों में मां अंबा की ज्योति। खड़े होकर थिरकने की बजाय यह नृत्य बैठे-बैठे ही पूरा होता है, जो 19वीं शताब्दी के कवि रणछोड़ दीवान के 'चंडीपाठ ना गरबा' से प्रेरित है। यह रूप महिलाओं की पर्दा प्रथा और सामाजिक बंधनों का सम्मान करता है, जहां शारीरिक श्रम की बजाय मन की भक्ति पर जोर है। गांधीनगर के नागर मंदिरों में हर नवरात्रि इसकी प्रतियोगिताएं सजती हैं, जहां सैकड़ों महिलाएं समन्वित तालियों की धुन पर देवी की आरती गाती हैं।

यह शैली आश्विन और चैत्र नवरात्रि दोनों में फलित होती है, जहां कोई जल्दबाजी नहीं, सिर्फ शांति का सागर। नागर महिलाओं के लिए यह न केवल धार्मिक अनुष्ठान है, बल्कि सामाजिक एकजुटता का प्रतीक भी। ग्रामीण गुजरात के पुरुष-प्रधान समाज में यह महिलाओं को बिना थकान के पूजा में शामिल होने का रास्ता देता है। इतिहासकारों के अनुसार, यह रूप वैष्णव भक्ति आंदोलन से प्रभावित है, जहां संगीत और ताल पर ध्यान केंद्रित किया गया। आजकल युवा पीढ़ी इसे योग सत्रों में अपनाने लगी है, जो तनाव मुक्ति का माध्यम बन गया। लेकिन मूल रूप में यह गुजरात की उस सादगी को दर्शाता है, जहां भक्ति का कोई बड़ा मंच जरूरी नहीं।

 रास गरबा: लाठियों की गूंज में योद्धाओं का जोश

गरबा के विपरीत छोर पर खड़ा है रास वह उग्र, युद्धक शैली जो मेर, वाघेर और कोली समुदायों की रगों में दौड़ती है। मणियारो लाठी दाव रास के नाम से मशहूर यह नृत्य लाठियों के साथ गोलाकार घेरा बनाकर किया जाता है, जहां हर थप्पड़ तटीय रक्षा की याद दिलाता है। मेर समुदाय, जो मध्यकालीन योद्धा वंश का वंशज है, इसकी शुरुआत समुद्री डाकुओं से लड़ने की कला से जोड़ता है। लाठियां यहां दुर्गा के शस्त्रों का प्रतीक हैं, जो कृषि के दौरान फसल कटाई की लय से भी प्रेरित हैं। सौराष्ट्र के तटवर्ती गांवों में नवरात्रि की रातें इसकी गूंज से गूंज उठती हैं, जहां पुरुष और महिलाएं मिलकर ताकत का प्रदर्शन करते हैं।

दांडीया रास इसका सबसे लोकप्रिय रूप है, जो तेज चालों और जोरदार टकराहटों से भरा है। कोली समुदाय में यह मछली पकड़ने की सामूहिकता को प्रतिबिंबित करता है, जबकि वाघेरों के बीच यह राजपूताना शौर्य की छाप छोड़ता है। उत्तर गुजरात के राबारी चरवाहों का गरबा धीमा और अनुग्रहपूर्ण है, जो ऊंटों की चाल से लिया गया लगता है। मिश्र रास, जो पुरुष-महिला मिश्रित है, कृष्ण की रासलीला से प्रेरित है और गुजरात का सबसे 'युवा' पारंपरिक रूप माना जाता है। ये नृत्य न केवल मनोरंजन हैं, बल्कि इतिहास की किताबें हैं जहां हर चाल में मराठा आक्रमणों की यादें या मुगल काल की एकजुटता छिपी है। आधुनिक दांडीया क्लब इन शैलियों को स्टेडियमों में ले आए हैं, लेकिन मूल जड़ें गांवों में ही हैं, जहां रास सामुदायिक सुरक्षा का संदेश देता है।

 प्रवास की लहरें: गरबा को वैश्विक पंख

गुजरात का व्यापारिक इतिहास गरबा की विविधता का असली इंजन रहा है। अरब सागर के किनारे से निकले जहाजों ने अफ्रीका, फारस, मलेशिया तक गुजराती व्यापारियों को पहुंचाया, जो अपनी परंपराओं को साथ ले गए। 19वीं शताब्दी में ब्रिटिश साम्राज्य के तहत पूर्वी अफ्रीका में बसे गुजरातियों ने गरबा को स्थानीय ड्रम बीट्स के साथ मिश्रित किया। आज टोरंटो का 'फेस्टिवल ऑफ इंडिया' उत्तर अमेरिका का सबसे बड़ा गरबा आयोजन है, जहां 50,000 से अधिक लोग सांस्कृतिक मिश्रण का आनंद लेते हैं। यूके के लंदन में राबारी शैली का गरबा अब ब्रिटिश-गुजराती युवाओं का प्रिय है, जबकि अमेरिका के न्यूयॉर्क में बेठा गरबा को ध्यान सत्रों में ढाला गया है।

यह वैश्विक फैलाव सामाजिक समानता का प्रतीक है। गरबा के गोले में जाति, लिंग या आर्थिक स्तर मायने नहीं रखते—सब एक लय में थिरकते हैं। यूनेस्को ने 2023 में इसे अमूर्त सांस्कृतिक धरोहर घोषित किया, जो इसकी वैश्विक अपील को मान्यता देता है। लेकिन आधुनिक चुनौतियां भी हैं: शहरीकरण ने ग्रामीण शैलियों को प्रभावित किया है, जबकि कोविड जैसी महामारियों ने इसे ऑनलाइन उत्सवों तक सीमित कर दिया। फिर भी, गुजरात सरकार की 'गरबा संरक्षण योजना' इन परंपराओं को जीवित रखने में लगी है, जो स्थानीय कलाकारों को प्रशिक्षण देती है।

सांस्कृतिक विशेषज्ञों का मानना है कि गरबा गुजरात की 'सॉफ्ट पावर' है, जो पर्यटन को बढ़ावा देता है। अहमदाबाद का साबरमती रिवरफ्रंट हर साल लाखों पर्यटकों को आकर्षित करता है, जहां मिश्रित शैलियां प्रदर्शित होती हैं। युवा डिजाइनर अब गरबा वेशभूषा को फैशन रैंप पर ले आए हैं, जो पारंपरिक चंदेरी साड़ियों को आधुनिक कट्स के साथ पेश करता है। लेकिन मूल भाव वही है—भक्ति, एकता और उत्सव। कच्छ के रण उत्सव में राबारी गरबा की धूल उड़ाती चालें पर्यटकों को मंत्रमुग्ध कर देती हैं, जबकि भावनगर के तटों पर कोली रास की लहरें समुद्र से तालमेल बिठाती हैं।

 आधुनिक चुनौतियां और संरक्षण की राह

आज गरबा पॉप कल्चर का हिस्सा बन चुका है, लेकिन पारंपरिक शैलियां विलुप्त होने की कगार पर हैं। शहरी युवा फ्यूजन गरबा को तरजीह देते हैं, जहां बॉलीवुड बीट्स हावी हैं। फिर भी, एनजीओ जैसे 'गरबा हेरिटेज फाउंडेशन' ग्रामीण इलाकों में कार्यशालाएं चला रहे हैं, जहां बुजुर्ग नृत्य सिखाते हैं। सरू सुब्बा जैसे इतिहासकार चेतावनी देते हैं कि "बिना जड़ों के यह फूल मुरझा जाएगा।" गुजरात विश्वविद्यालय के सांस्कृतिक अध्ययन विभाग ने 36 शैलियों का दस्तावेजीकरण शुरू किया है, जो डिजिटल आर्काइव में संग्रहीत हो रहा है।

नवरात्रि 2025 में अहमदाबाद का गरबा महोत्सव रिकॉर्ड तोड़ने जा रहा है, जहां 100 से अधिक समुदाय अपनी शैलियां पेश करेंगे। यह न केवल उत्सव है, बल्कि गुजरात की विविधता का उत्सव। व्यापारिक शहरों से लेकर सीमांत गांवों तक, गरबा हर दिल को जोड़ता है। मेर योद्धाओं की लाठियां आज भी ताकत की गूंज छोड़ती हैं, जबकि नागर महिलाओं की तालियां शांति का संदेश देती हैं। यह सफर जारी है—बेठा से रास तक, गुजरात की आत्मा थिरकती रहेगी।