
एंटरटेनमेंट डेस्क, वेरोनिका राय |
द बंगाल फाइल्स रिव्यू: विवेक अग्निहोत्री ने दिखाई 1946 की कोलकाता हिंसा, लेकिन लंबाई और स्क्रीनप्ले खलते हैं...
फिल्म निर्देशक विवेक अग्निहोत्री की बहुचर्चित फिल्म द बंगाल फाइल्स 5 सितंबर को देशभर के सिनेमाघरों में रिलीज हो गई। यह उनकी फाइल्स ट्रायोलॉजी की तीसरी फिल्म है। इससे पहले द ताशकंद फाइल्स और द कश्मीर फाइल्स काफी चर्चा में रही थीं। नई फिल्म का विषय 1946 का डायरेक्ट एक्शन डे और उसके बाद कोलकाता में हुई साम्प्रदायिक हिंसा है, जिसमें हजारों लोग मारे गए थे।
डायरेक्ट एक्शन डे पर आधारित कहानी
फिल्म की शुरुआत 1946 में लार्ड माउंटबेटन, जवाहरलाल नेहरू और मोहम्मद अली जिन्ना की बहस से होती है। अंग्रेजों की योजना थी कि मुसलमानों के लिए अलग देश बने। महात्मा गांधी इसका विरोध करते हैं। इसके बाद कहानी मौजूदा समय में आती है। पश्चिम बंगाल के मुर्शिदाबाद जिले में एक दलित लड़की के गायब होने का आरोप विधायक सरदार हुसैन (शाश्वत चटर्जी) पर लगता है। हुसैन पर बांग्लादेशी घुसपैठियों को बंगाल में बसाने और वोट बैंक बनाने का भी आरोप है। मामला हाई कोर्ट तक पहुंचता है और सीबीआई जांच का आदेश होता है।
दिल्ली से सीबीआई अधिकारी शिवा पंडित (दर्शन कुमार) मुर्शिदाबाद आते हैं। उन्हें एक सौ वर्षीय महिला मां भारती (पल्लवी जोशी) मिलती हैं, जो 1946 की घटनाओं की जीवित गवाह हैं। जांच के दौरान शिवा को पता चलता है कि बंगाल में आज भी राजनीतिक दबाव और हिंसा हावी है।
झकझोरते दृश्य, लेकिन धीमा स्क्रीनप्ले
फिल्म में 1946 की कोलकाता और नोआखली हिंसा को स्क्रीन पर उतारने की कोशिश की गई है। हजारों हिंदुओं की हत्या, महिलाओं पर हमले और जबरन धर्मांतरण जैसे दृश्य दर्शकों को झकझोरते हैं।
हालांकि, 204 मिनट लंबी फिल्म कई बार बोझिल लगती है। आलोचकों का कहना है कि इसे संक्षिप्त किया जा सकता था।
अभिनय और रिसर्च की तारीफ
पल्लवी जोशी ने मां भारती के किरदार में दमदार अभिनय किया है। दर्शन कुमार भी अपने रोल में प्रभावी हैं। विवेक अग्निहोत्री ने ऐतिहासिक घटनाओं पर गहन शोध किया है, जिसकी झलक कई दृश्यों में दिखाई देती है।
कहां खलती है फिल्म?
फिल्म में कई जगह कहानी अधूरी छोड़ दी गई है।
- गांधी की अहिंसा का विरोध करने वाले गोपाल पाठा का किरदार अचानक गायब हो जाता है।
- सुहरावर्दी (मोहन कपूर) जिन्हें ‘बंगाल का कसाई’ कहा गया, का चरित्र गहराई से नहीं दिखाया गया।
- दंगा भड़कने के दौरान भारती का सुरक्षित घर लौटना अवास्तविक लगता है।
संवाद भी कई जगह अत्यधिक साहित्यिक लगते हैं, जिससे आम दर्शकों का जुड़ाव कम हो सकता है।
पिछली फिल्मों से तुलना
द ताशकंद फाइल्स और द कश्मीर फाइल्स ने राष्ट्रीय बहस छेड़ दी थी। इसके मुकाबले द बंगाल फाइल्स का प्रभाव कमजोर नजर आता है। हालांकि इसमें तथ्यों की गहराई है, लेकिन सिनेमाई प्रस्तुति और संपादन इसे पिछली दोनों फिल्मों से पीछे कर देते हैं।
द बंगाल फाइल्स 1946 की कोलकाता त्रासदी और बंगाल की हिंसक राजनीति को पर्दे पर लाने का साहसिक प्रयास है। फिल्म इतिहास का अनदेखा पन्ना खोलती है, लेकिन लंबाई और कमजोर पटकथा इसकी सबसे बड़ी कमी साबित होती है।
इतिहास में रुचि रखने वालों के लिए यह फिल्म महत्वपूर्ण है, लेकिन मनोरंजन की तलाश में आए दर्शकों को यह भारी लग सकती है।