नेशनल डेस्क, आर्या कुमारी |
बिहार सहित पूर्वी भारत में आज से सूर्योपासना का महापर्व कार्तिक छठ नहाय-खाय के साथ शुरू हो गया। चार दिनों तक चलने वाले इस पर्व की शुरुआत नहाय-खाय से होती है, जो व्रत की पवित्रता और आत्मशुद्धि का प्रतीक माना जाता है। बिहार, झारखंड, पूर्वी उत्तर प्रदेश और विदेशों में बसे बिहारी समाज के लोग इसे श्रद्धा और भक्ति के साथ मना रहे हैं।
पवित्र स्नान और सात्विक भोजन से हुई शुरुआत
सुबह से ही पटना, गया, भागलपुर और मुजफ्फरपुर के घाटों पर श्रद्धालु स्नान करते दिखे। नहाय-खाय के दिन व्रती पवित्र जल में स्नान कर सूर्य देव को अर्घ्य देते हैं। इसके बाद घर लौटकर अरवा चावल, लौकी की सब्जी और चने की दाल का सात्विक भोजन ग्रहण करते हैं। यही व्रत का पहला चरण है, जो शरीर और मन की शुद्धि का प्रतीक है।
शुद्धता, अनुशासन और आत्मसंयम का पर्व
नहाय-खाय का दिन व्रत का आधारभूत चरण होता है। इस दिन घर में मांसाहार, प्याज-लहसुन और अशुद्ध वस्तुओं का प्रयोग वर्जित रहता है। महिलाएँ मिट्टी के चूल्हे पर भोजन बनाती हैं और पीतल या कांसे के बर्तनों का उपयोग करती हैं। यह पर्व बिना किसी पंडित या पुरोहित के, व्रती स्वयं द्वारा सूर्य देव की उपासना के रूप में मनाया जाता है।
खरना: कठिन व्रत का चरण
दूसरे दिन खरना होता है। व्रती पूरे दिन निर्जला व्रत रखते हैं और शाम को स्नान के बाद गुड़ और चावल की खीर, रोटी और केले का प्रसाद बनाकर सूर्य देव को अर्पित करते हैं। इसके बाद वही प्रसाद ग्रहण कर अगले 36 घंटे का निर्जला व्रत शुरू होता है। खरना की रात घरों में लोकगीतों की गूंज से भक्ति-मय होती है।
संध्या और प्रातः अर्घ्य
तीसरे दिन व्रती अस्ताचलगामी सूर्य को अर्घ्य देते हैं। घाटों पर लाखों श्रद्धालु भक्ति गीतों, ढोल-नगाड़ों और लोक संगीत के साथ सूर्य को नमन करते हैं। चौथे दिन प्रातःकाल उदयीमान सूर्य को अर्घ्य देकर व्रत की पूर्णाहुति होती है। यह क्षण अत्यंत भावुक और पवित्र होता है, जब व्रती परिवार की सुख-समृद्धि और जीवन के कष्टों से मुक्ति की प्रार्थना करते हैं।
लोक परंपरा, आस्था और पर्यावरण
छठ केवल धार्मिक अनुष्ठान नहीं, बल्कि बिहार की लोकसंस्कृति और पर्यावरणीय चेतना का प्रतीक है। इसमें मिट्टी के चूल्हे, बांस की सुपली, केले और गन्ने जैसी प्राकृतिक वस्तुओं का उपयोग किया जाता है। व्रती जलाशयों की सफाई करते हैं, जिससे जल संरक्षण और स्वच्छता का संदेश समाज में फैलता है।
छठ गीतों से गूंज उठा बिहार
बिहार के गाँवों और शहरों में लोकगायिकाओं की आवाज़ों में पारंपरिक छठ गीत गूंज रहे हैं — “कांच ही बांस के बहंगिया…” जैसे गीत भक्ति और उल्लास से माहौल को भर देते हैं। हर घाट पर दीपों की रोशनी और लोकगीतों की धुनें छठ की सांस्कृतिक गरिमा को बढ़ाती हैं।
व्रती की तैयारी और घाट वाले दिन की सामग्री
छठ व्रत की तैयारी कई दिन पहले से शुरू हो जाती है। घरों की साफ-सफाई, पूजा स्थल और छठघाट तैयार किया जाता है। घाट पर बांस की दउरी और सुपली में प्रसाद रखा जाता है। पीतल या कांसे के लोटे में गंगाजल भरकर सूर्य देव को अर्घ्य दिया जाता है। थालियों में केला, नारियल, सुथनी, गन्ना, ठेकुआ और खीर जैसी सात्विक वस्तुएँ रखी जाती हैं। दीप, फूल, कलश और प्राकृतिक सजावट से वातावरण पवित्र बनाया जाता है। सभी वस्तुएँ पूरी तरह प्राकृतिक और जैविक होती हैं, जिससे छठ पर्व की सादगी, शुद्धता और पर्यावरणीय सम्मान झलकता है।
छठ प्रसाद का महत्व
छठ प्रसाद व्रती की भक्ति और सात्विक आहार का प्रतीक है। ठेकुआ, खीर, फल और मौसमी उपज प्राकृतिक और शुद्ध होती हैं। प्रसाद केवल सूर्य देव को अर्पित नहीं किया जाता, बल्कि व्रती और उनके परिवार द्वारा ग्रहण कर सभी में बांटा जाता है, जिससे प्रेम और सौहार्द का संदेश मिलता है। यही कारण है कि छठ प्रसाद इस पर्व का सबसे महत्वपूर्ण और पवित्र हिस्सा माना जाता है।







