विदेश डेस्क- ऋषि राज
पाकिस्तान ने हाल ही में एक सनसनीखेज स्वीकारोक्ति की है जिसने अंतरराष्ट्रीय राजनीति में नई हलचल पैदा कर दी है। इस्लामाबाद ने खुलासा किया है कि उसने अमेरिका को अपने हवाई क्षेत्र का उपयोग करने की अनुमति दी थी ताकि अफगानिस्तान में आतंकवादी ठिकानों पर ड्रोन हमले किए जा सकें। यह खुलासा इस्तांबुल में आयोजित तालिबान और अंतरराष्ट्रीय प्रतिनिधियों की शांति वार्ता के दौरान किया गया, जहां पाकिस्तानी अधिकारियों ने माना कि यह निर्णय “क्षेत्रीय स्थिरता” और “आतंकवाद पर नियंत्रण” की रणनीति का हिस्सा था।
सूत्रों के मुताबिक, पाकिस्तान ने यह समझौता गुप्त रूप से किया था ताकि अफगानिस्तान की सीमा से सटे अपने उत्तरी और पश्चिमी इलाकों में सक्रिय आतंकवादी गुटों, विशेष रूप से तहरीक-ए-तालिबान पाकिस्तान (TTP) के नेटवर्क को कमजोर किया जा सके। अमेरिकी ड्रोन अभियानों का मुख्य उद्देश्य इन उग्रवादी ठिकानों पर सटीक हमले करना और उनके शीर्ष नेतृत्व को समाप्त करना था। पाकिस्तान ने इन अभियानों के लिए खुफिया जानकारी भी साझा की थी। रिपोर्टों के अनुसार, इन ड्रोन हमलों के परिणामस्वरूप कई कुख्यात तालिबानी कमांडर मारे गए, जिससे सीमा पार आतंकी गतिविधियों में अस्थायी कमी आई। हालांकि, पाकिस्तान की इस स्वीकृति से देश के अंदर राजनीतिक हलचल मच गई है, क्योंकि कई राजनीतिक दल और नागरिक समूह इसे “राष्ट्रीय संप्रभुता से समझौता” मान रहे हैं।
TTP से जूझता पाकिस्तान
तहरीक-ए-तालिबान पाकिस्तान (TTP) एक कट्टर पश्तून आतंकवादी संगठन है जो पाकिस्तान सरकार और सेना का विरोध करता है। इस संगठन का उद्देश्य पाकिस्तान में शरीया आधारित शासन लागू करना है। पिछले कुछ वर्षों में इस समूह ने देश में कई आत्मघाती हमले, सैन्य ठिकानों पर हमले और आम नागरिकों की हत्याएं की हैं। इसके कारण पाकिस्तान में आंतरिक अस्थिरता और सांप्रदायिक हिंसा बढ़ती जा रही है।
पाकिस्तानी सेना ने TTP के खिलाफ कई सैन्य अभियान चलाए हैं, लेकिन संगठन बार-बार सीमा पार अफगानिस्तान में जाकर अपनी ताकत बढ़ाता रहा है। इस वजह से पाकिस्तान के लिए एक स्थायी समाधान खोजना मुश्किल हो गया था। विशेषज्ञों के मुताबिक, अमेरिकी ड्रोन अभियानों ने TTP की शक्ति और उसकी परिचालन क्षमता को कमजोर करने में अहम भूमिका निभाई।हालांकि, पाकिस्तान के इस स्वीकारोक्ति से अमेरिका-पाकिस्तान संबंधों पर भी नया ध्यान केंद्रित हो गया है। विश्लेषकों का मानना है कि यह खुलासा इस बात का सबूत है कि दोनों देशों के बीच सुरक्षा सहयोग गुप्त रूप से अब भी जारी है — भले ही सार्वजनिक रूप से दोनों सरकारें अलग रुख अपनाती रही हों।
इस कदम से पाकिस्तान की विदेश नीति, अफगानिस्तान में शक्ति संतुलन, और आंतरिक सुरक्षा रणनीति को लेकर कई नए सवाल खड़े हो गए हैं।







