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बिहार: पलटीमार राजनीति बनाम नीतीश कुमार

स्पेशल रिपोर्ट, नीतीश कुमार।

बिहार की पलटीमार राजनीति और नीतीश कुमार 

पटना | बिहार की राजनीति को अक्सर 'पलटीमार' कहा जाता है, और इसके केंद्र में होते हैं नीतीश कुमार। जनता दल (यूनाइटेड) के संरक्षक और बिहार के लंबे समय तक सेवा करने वाले नेता नीतीश कुमार ने पिछले दो दशकों में गठबंधनों की ऐसी करवटें ली हैं, जो राज्य की सियासी हलचल को हमेशा गरमाती रही हैं। कभी भाजपा के साथ 'एनडीए' की मजबूत दीवार, तो कभी आरजेडी-कांग्रेस के 'महागठबंधन' में साझेदारी। अब जब एक बार फिर बिहार विधानसभा चुनाव 2025 का शंखनाद हो चुका है।

एनडीए में सीट शेयरिंग का फॉर्मूला भी स्पष्ट हो गया है। इस बार बीजेपी और जेडीयू दोनों बराबर के भाई बन गए हैं, यानी दोनों 101-101 सीटों पर चुनाव लड़ेंगे। जबकि चिराग पासवान के झोले में 29 सीटें आईं तो वहीं जीतन राम मांझी और उपेंद्र कुशवाहा के झोले में 6-6 सीटें आई हैं। कुल 243 सीटों पर 6 व 11 नवंबर को वोटिंग होगी, नतीजे 14 नवंबर को आएंगे।

ऐसे में खबर छनकर आ रही है कि सुशासन बाबू 9 विधानसभा सीटों को लेकर खासे नाराज है। आलम यह कि बीते कल उन्होंने अपने खास ललन सिंह और संजय झा को चलता कर दिया। उन्होंने इन दोनों पर प्रो - बीजेपी काम करने का आरोप लगाया। एक ओर रत्नेश सादा का टिकट कटा तो दूसरी ओर मंडल घर के सामने धरने पर। माहौल गरम है और फिर से नीतीश के पलटी मारने के शिगूफे भी छूटने लगे। कई मीडिया रिपोर्ट ने तो देर रात नीतीश कुमार और तेजस्वी के बीच गोपनीय खेल की ओर भी इशारा किया।

हालांकि किसी के पास पुख्ता कुछ नहीं पर कयासों का दौर जारी है। पहले भी नीतीश की 'पलटियां' न सिर्फ बिहार की सत्ता संरचना को बदलती रहीं, बल्कि राष्ट्रीय राजनीति को भी प्रभावित करती रहीं। लेकिन क्या ये रणनीतिक चालें हैं या अवसरवाद की निशानी? इस स्पेशल रिपोर्ट में हम तथ्यों के आईने से झांकते हुए चलिए जानते हैं नीतीश कुमार का सियासी सफर।

नीतीश कुमार: 'सुशासन बाबू' से 'पलटीमार' तक का सफर
नीतीश कुमार का राजनीतिक उदय 1980 के दशक में हुआ, जब वे लालू प्रसाद यादव और जॉर्ज फर्नांडिस के साथ जेपी आंदोलन से जुड़े। 1985 में पहली बार लोक पार्टी से विधायक बने और 1990 में केंद्र में कृषि राज्यमंत्री बने। लेकिन बिहार की सत्ता में उनका असली जलवा 2000 से शुरू हुआ। सन् 2000 में पहली कोशिश, सात दिनों का राज। मार्च 2000 में भाजपा के समर्थन से नीतीश पहली बार मुख्यमंत्री बने, लेकिन बहुमत साबित न कर पाने पर सात दिनों में इस्तीफा दे दिया। राबड़ी देवी ने सत्ता संभाली। यह उनकी पहली 'अधूरी पारी' थी।

2005 में एनडीए के साथ सत्ता हासिल करने के बाद वे 'सुशासन बाबू' के नाम से मशहूर हुए, जिन्होंने लालू प्रसाद यादव के 'जंगलराज' के बाद सड़कें, बिजली और कानून-व्यवस्था सुधारने का दावा किया। लेकिन 2010 के विधानसभा चुनाव में जेडीयू को 115 सीटें मिलने के बावजूद, गठबंधनों में बार-बार बदलाव ने उनकी छवि को धूमिल कर दिया। वर्तमान में वे नौ बार मुख्यमंत्री बने हैं, एक रिकॉर्ड जो बिहार की राजनीति का प्रतीक बन चुका है।

नीतीश की पलटियां मुख्य रूप से भाजपा और आरजेडी के बीच घूमती रहीं। जिसके चलते मीडिया में उन्हें 'पल्टू कुमार' या 'पल्टू राम' कहा जाने लगा, क्योंकि उन्होंने एक दशक में पांच बार गठबंधन बदले।

2013 से 2024 के बीच नीतीश कुमार की दलबदल टाइमलाइन:
जुलाई 2013: पहली पलटी - एनडीए से ब्रेकअप
17 साल पुराने एनडीए गठबंधन को तोड़ा, कारण: नरेंद्र मोदी को भाजपा का प्रचार प्रमुख बनाना।

* अक्टूबर 2015: दूसरी पलटी - महागठबंधन का गठन
आरजेडी और कांग्रेस के साथ महागठबंधन बनाया। 2015 विधानसभा चुनाव में गठबंधन ने 178 सीटें जीतीं, नीतीश दोबारा मुख्यमंत्री बने।

* जुलाई 2017: तीसरी पलटी - महागठबंधन से एनडीए में वापसी
तेजस्वी यादव पर भ्रष्टाचार के आरोपों के बाद महागठबंधन छोड़ा। उसी रात भाजपा के समर्थन से एनडीए में लौटे और छठी बार शपथ ली। 2020 में एनडीए की जीत के बाद एक बार फिर सातवीं बार शपथ ली।

* अगस्त 2022: चौथी पलटी - एनडीए से महागठबंधन में
भाजपा पर 'षड्यंत्र' का आरोप लगाकर एनडीए छोड़ा। आरजेडी के साथ लौटे, आठवीं बार मुख्यमंत्री बने।

* जनवरी 2024: पांचवीं पलटी - महागठबंधन से फिर एनडीए
इंडिया गठबंधन में 'असहजता' का हवाला देकर इस्तीफा दिया। भाजपा के साथ एनडीए में लौटे, नौवीं बार शपथ ली।

ये करवटें नीतीश को सत्ता में बनाए रखती रहीं, लेकिन जेडीयू की सीटें 2010 की 115 से घटकर 2020 में 43 रह गईं। 2025 चुनावों में ये इतिहास दोहराने की आशंका फिलहाल नहीं दिख रही है। बिहारवासी अब कहीं न कहीं स्थिर सरकार के फिराक में हैं। पर तथ्य यही कहते हैं कि सियासत हो या प्यार, दोनों में 'ट्रस्ट इश्यू' सबसे बड़ा खतरा है।


बिहार पर प्रभाव: विकास बनाम अस्थिरता
नीतीश की पलटियां बिहार की राजनीति को अनिश्चित बनाती रहीं। एक ओर, उनके शासन में सड़कें (लगभग 1 लाख किमी नई सड़कें), बिजली (ग्रामीण विद्युतीकरण 100%) और महिला सशक्तिकरण (50% आरक्षण) जैसे कदम उठे।

लेकिन गठबंधनों की अस्थिरता ने विकास को पटरी से उतारा। विशेष राज्य का दर्जा न मिलना और 2023 की जाति जनगणना जैसी पहलें भी केंद्र से टकराव का शिकार रहीं। आरजेडी और भाजपा दोनों ही नीतीश पर भरोसा न करने लगे, जिससे बिहार में गठबंधन राजनीति जातिगत वोटबैंक पर निर्भर हो गई।

सत्ता का खेल या बिहार का दुर्भाग्य?
नीतीश कुमार बिहार की राजनीति के केंद्र में हैं क्योंकि कोई दल अकेले सत्ता नहीं पा सकता। उनके 12-13% वोट (मुख्यतः अत्यंत पिछड़े और महादलित समुदायों से) किंगमेकर बनाते हैं। लेकिन बार-बार पलटियां उनकी विश्वसनीयता पर सवाल उठाती हैं। बिहार का ये दुर्भाग्य रहा है कि विकास के मुद्दे, बेरोजगारी के मुद्दे, गरीबी, शिक्षा, स्वास्थ्य और पलायन जैसे मुद्दे सत्ता के खेल की चक्की में पिस के रह जाते हैं। बिहारवासियों का फैसला तय करेगा कि 'सुशासन' की उम्मीद टूटेगी या नई शुरुआत होगी। फिलहाल, सियासी हवा में पलट की बू तो नहीं आ रही है।