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विश्व सीओपीडी दिवस पर डॉक्टरों ने खोली पोल, ये भ्रांतियां ले रही जानें

मुस्कान कुमारी, हेल्थ डेस्क 

क्रॉनिक ऑब्स्ट्रक्टिव पल्मोनरी डिजीज (सीओपीडी) अब सिर्फ सिगरेट पीने वालों या बुजुर्गों की बीमारी नहीं रही। बढ़ते प्रदूषण, बदलती जीवनशैली और पर्यावरणीय विषाक्त पदार्थों के संपर्क से यह गैर-धूम्रपान करने वाले युवाओं को भी लील रही है। विश्व सीओपीडी दिवस पर भारत के प्रमुख फेफड़े विशेषज्ञों ने चेतावनी दी है कि गलत धारणाओं के कारण यह बीमारी देर से पकड़ी जा रही है, जिससे लाखों लोग सांस की तकलीफ से जूझ रहे हैं। मैक्स सुपर स्पेशियलिटी हॉस्पिटल, साकेत के डॉ. विवेक नंगिया और मेदांता हॉस्पिटल, नोएडा के डॉ. मनु मदन ने खुलासा किया कि आज 50 फीसदी सीओपीडी केस नॉन-स्मोकर्स में देखे जा रहे हैं। प्रदूषण ने नई मरीजों की संख्या बढ़ाई है और पुराने रोगियों में बिगड़ाव तेज कर दिया है।

सीओपीडी सिर्फ स्मोकर्स की बीमारी? ये सबसे घातक भ्रम क्यों मार रहा है?

डॉ. विवेक नंगिया ने बताया कि सबसे बड़ी भ्रांति यह है कि सीओपीडी सिर्फ धूम्रपान करने वालों को होती है। लेकिन वास्तविकता यह है कि प्रदूषित हवा, बायोमास ईंधन का धुआं और व्यावसायिक जोखिम से नॉन-स्मोकर्स भी इसका शिकार हो रहे हैं। "अब 50 प्रतिशत बोझ नॉन-स्मोकर्स पर है। शहरों में रहने वाले लोग बिना सिगरेट छुए सांस फूलने की शिकायत कर रहे हैं," उन्होंने कहा। विशेषज्ञों का मानना है कि यह भ्रम ही देरी का कारण बन रहा है, जिससे फेफड़ों का नुकसान अपूरणीय हो जाता है।

 देरी से डायग्नोसिस: ये लक्षण नजरअंदाज करने से हो रही जान का खेल

सीओपीडी की पहचान देर से होने का मुख्य कारण इसके धीमे लक्षण हैं, जो उम्र बढ़ने का हिस्सा समझ लिए जाते हैं। डॉ. नंगिया ने चेताया, "8 हफ्तों से लगातार खांसी, धीरे-धीरे बढ़ती सांस की तकलीफ, वजन घटना या भूख न लगना- ये संकेत हैं। अगर स्मोकिंग या प्रदूषण का इतिहास हो, तो तुरंत चेस्ट एक्स-रे और पल्मोनरी फंक्शन टेस्ट (पीएफटी) करवाएं।" युवा वयस्कों में भी ये लक्षण आम हो रहे हैं, लेकिन लोग इन्हें सामान्य थकान मान लेते हैं।

 फेफड़ों का नुकसान कैसे बढ़ता है? क्या कुछ ठीक हो सकता है?

सीओपीडी में फेफड़ों की नलियां संकुचित हो जाती हैं, एयर सैक्स क्षतिग्रस्त होते हैं और हवा फंस जाती है, जिससे सांस लेना मुश्किल हो जाता है। यह प्रक्रिया वर्षों में धीरे-धीरे बढ़ती है। डॉ. नंगिया ने स्पष्ट किया, "नुकसान पूरी तरह उलट नहीं पाया जा सकता, लेकिन इनहेलर थेरेपी, पल्मोनरी रिहैबिलिटेशन, संक्रमण रोकथाम और बिगड़ाव से बचाव से इसे लंबे समय तक नियंत्रित रखा जा सकता है।" नियमित निगरानी से मरीज सामान्य जीवन जी सकते हैं।

 प्रदूषण का काला साया: नई पीढ़ी पर क्यों कहर टूट रहा?

हाल के वर्षों में वायु प्रदूषण ने सीओपीडी का चेहरा बदल दिया है। डॉ. नंगिया ने कहा, "दोहरी मार पड़ी है- पहले, नए मरीज आ रहे हैं जो कभी बीमार न थे, लेकिन अब खांसी, सांस फूलना और सीने में जकड़न की शिकायत कर रहे। दूसरे, पुराने रोगी बार-बार बिगड़ रहे हैं। संख्या बढ़ी है, लक्षण गंभीर हो गए हैं।" दिल्ली-एनसीआर जैसे शहरों में यह समस्या चरम पर है, जहां सर्दियों में एयर क्वालिटी इंडेक्स खतरनाक स्तर पर पहुंच जाता है।

धूम्रपान के अलावा ये छिपे खतरे बढ़ा रहे रिस्क

डॉ. मनु मदन ने बताया कि सिगरेट के अलावा वेपिंग, ई-सिगरेट, घरेलू बायोमास धुआं, बचपन की संक्रमण, टीबी का पुराना असर, खतरनाक रसायनों का व्यावसायिक संपर्क और आनुवंशिक कारक सीओपीडी को न्योता देते हैं। "युवाओं में हुकाह और ई-सिगरेट का चलन तेजी से रोग बढ़ा रहा है," उन्होंने चेताया।

डाइट, नींद और तनाव: फेफड़ों की सेहत पर कैसे असर डालते हैं?

सीओपीडी रोगियों के लिए संतुलित जीवनशैली जिंदगी-मौत का सवाल है। डॉ. मदन ने सलाह दी, "एंटीऑक्सीडेंट से भरपूर फल-सब्जियां, ओमेगा-3 युक्त भोजन फायदेमंद है। ज्यादा कार्बोहाइड्रेट वाली डाइट नुकसानदेह। नींद और तनाव जुड़े हैं- खराब नींद तनाव बढ़ाती है, जो फेफड़ों को कमजोर करती है। माइंडफुलनेस, व्यायाम और संतुलित आहार से मूड, नींद और फेफड़े सब बेहतर होते हैं।"

 प्रदूषित शहरों में फेफड़े बचाने के 5 आसान कदम

प्रदूषण से जूझते शहरों में रहने वालों के लिए डॉ. मदन ने व्यावहारिक सुझाव दिए:
1. एयर क्वालिटी ट्रैक करें, खराब दिनों में बाहर न निकलें- खासकर बच्चे, बुजुर्ग, गर्भवती और हृदय-फेफड़े रोगी।
2. एन95 या सर्जिकल मास्क लगाएं, लेकिन लंबे समय तक एन95 न पहनें।
3. बाहर से लौटकर स्टीम इनहेलेशन और गरारे करें।
4. घर में पौधे लगाएं।
5. एयर प्यूरीफायर इस्तेमाल करें अगर ज्यादातर समय indoors रहते हैं।

युवाओं पर संकट: उम्र की दीवार क्यों टूट रही?

सीओपीडी को आमतौर पर 40 साल बाद की बीमारी माना जाता है, लेकिन पर्यावरणीय बदलाव और जीवनशैली से यह युवाओं तक पहुंच गई है। डॉ. मदन ने कारण गिनाए: विकासशील देशों में प्रदूषण, बचपन में मां का धूम्रपान या कम वजन, संक्रमण, ई-सिगरेट-हुकाह का चलन, अल्फा-1 एंटीट्रिप्सिन की कमी जैसी आनुवंशिक समस्या और औद्योगीकरण से गैसों का संपर्क। "यह बदलाव चिंताजनक है, युवा सतर्क हों," उन्होंने कहा।