
स्पेशल रिपोर्ट, ऋषि राज |
श्रीलंका, बांग्लादेश और अब नेपाल, में जो कुछ हाल ही के दिनों में हुआ और जो कुछ हो रहा है, वह वाकई सोचने पर मजबूर कर देने वाला है। तीनों देशों में जैसे एक ही पटकथा लिखी गई हो। अचानक लाखों लोग सड़कों पर उतर आए। विरोध प्रदर्शन शुरू हुआ, जो देखते ही देखते उग्र हो गया। कुछ ही समय में संसद भवनों पर कब्जा कर लिया गया। आगजनी की घटनाएँ हुईं, सरकारी संपत्तियाँ नष्ट हुईं और हथियार लहराते युवाओं की तस्वीरें सामने आईं। क्या यह महज संयोग है? या दुनिया के भीतर कहीं कोई बड़ा खेल चल रहा है? यही सवाल दिमाग में घूमता रहता है।
इन तीनों देशों की कहानी अलग-अलग नहीं, बल्कि एक जैसी लगती है। आर्थिक संकट ने लोगों को परेशान कर दिया। महंगाई बढ़ती गई, जरूरी चीजें आम आदमी की पहुंच से बाहर होती गईं। श्रीलंका में तो हालत इतनी खराब हो गई कि लोगों को दो वक्त का खाना जुटाना मुश्किल हो गया। बांग्लादेश में बेरोजगारी और शिक्षा व्यवस्था से जुड़ी समस्याओं ने युवाओं को बेचैन कर दिया। वहीं नेपाल में भ्रष्टाचार, प्रशासनिक अक्षमता और बढ़ती असमानताओं ने लोगों का धैर्य तोड़ दिया। जब रोजमर्रा की ज़िंदगी ही संघर्ष बन जाए, तो सड़क पर उतरना कोई आश्चर्य नहीं।
लेकिन क्या सिर्फ आर्थिक संकट ही इसका कारण है? युवाओं ने जिस तरह सोशल मीडिया का इस्तेमाल किया, वह दिखाता है कि आधुनिक तकनीक ने विरोध की आवाज को व्यापक बना दिया है। एक वीडियो, एक पोस्ट, एक हैशटैग – बस यही काफी था लोगों को जोड़ने के लिए। यही कारण है कि इन आंदोलनों में युवाओं की भूमिका सबसे ज्यादा रही। उनका गुस्सा सिर्फ सरकार के खिलाफ नहीं था, बल्कि पूरे तंत्र के खिलाफ था।
साथ ही, एक और पहलू है जिसे नजरअंदाज नहीं किया जा सकता। महाशक्तियों की राजनीति। बड़े देश अपनी रणनीतिक जरूरतों के लिए छोटे देशों में प्रभाव जमाने की कोशिश करते हैं। आर्थिक दबाव, ऊर्जा की जरूरतें और सैन्य हित – ये सब मिलकर किसी देश की राजनीति को प्रभावित कर सकते हैं। कहीं ऐसा तो नहीं कि बाहरी ताकतें इन असंतोषों को हवा देकर अपने हित साध रही हों? यह सवाल भी उतना ही महत्वपूर्ण है जितना आर्थिक संकट का।
फिर भी, कुछ लोगों का मानना है कि यह घटनाएँ लोकतंत्र की ताकत का उदाहरण हैं। जब जनता की आवाज़ दबाई जाती है, तो वह खुद रास्ता तलाश लेती है। आंदोलन हिंसक हो गया, यह दुखद है, लेकिन इसकी जड़ में जनता की पीड़ा है। यह बताता है कि जब शासन जनता की जरूरतें पूरी नहीं कर पाता, तो असंतोष विस्फोटक रूप ले लेता है। ऐसे में इन घटनाओं को सिर्फ अराजकता कहकर खारिज नहीं किया जा सकता।
ऐसा लगता है कि यह सब एक बड़ी चेतावनी है। अगर सरकारें जनता की आवाज नहीं सुनेंगी, तो ऐसे आंदोलन बढ़ते जाएंगे। युवाओं के लिए यह समय जिम्मेदारी का है। सिर्फ विरोध करना काफी नहीं, समाधान की दिशा में भी सोचना होगा। जागरूकता, संवाद और सकारात्मक पहल ही बदलाव ला सकती है। नहीं तो आंदोलन हिंसा में बदल जाएगा और स्थिति और खराब हो जाएगी।
अंततः, श्रीलंका, बांग्लादेश और नेपाल की घटनाएँ हमें यह सोचने पर मजबूर करती हैं कि संकट कहीं गहराई में है। यह महज संयोग नहीं, बल्कि आर्थिक, राजनीतिक और सामाजिक दबावों का परिणाम है। साथ ही वैश्विक राजनीति की छाया भी इसमें मौजूद है। ऐसे में हमें सतर्क रहकर सोचना होगा कि कैसे बदलाव लाएँ ताकि लोकतंत्र मजबूत हो, न कि कमजोर। यही समय है, जब युवाओं को नेतृत्व संभालकर राष्ट्र निर्माण में आगे आना चाहिए।