
स्टेट डेस्क, वेरोनिका राय |
दरभंगा में आयोजित राष्ट्रीय संगोष्ठी में बिहार के राज्यपाल सह कुलाधिपति आरिफ मोहम्मद खान ने कहा कि समाज में अनुशासन और शांति बनाए रखने के लिए दंड व्यवस्था अपरिहार्य है। उन्होंने स्पष्ट किया कि दंड केवल अपराधियों को सजा देने का औजार नहीं, बल्कि समाज में न्याय, मर्यादा और सुधार लाने का प्रभावी साधन है।
राष्ट्रीय संगोष्ठी में गूंजे भारतीय दर्शन के स्वर
ललित नारायण मिथिला विश्वविद्यालय के जुबली हॉल में गुरुवार को “प्राचीन एवं आधुनिक दंड व्यवस्था : एक विमर्श” विषय पर आयोजित संगोष्ठी का उद्घाटन करते हुए राज्यपाल ने महाभारत और शतपथ ब्राह्मण का उल्लेख किया। उन्होंने कहा कि भारतीय दर्शन का आदर्श ऐसा समाज है जहां राजा या राज्य की आवश्यकता न हो।
राज्यपाल ने बताया कि शतपथ ब्राह्मण के अनुसार हमारा आदर्श ऐसा समाज बनाना है जिसमें ‘मत्स्य न्याय’ न हो — अर्थात बलशाली कमजोर का शोषण न करे। यदि बलशाली लोग यह जिम्मेदारी लें कि समाज में हर कमजोर व्यक्ति सम्मान और प्रतिष्ठा के साथ जी सके, तो वही समाज धार्मिक और न्यायपूर्ण माना जाएगा।
पश्चिम और भारत की तुलना
राज्यपाल ने कहा कि पश्चिमी देशों में मानव-मानव के बीच भेदभाव रंग, भाषा और लिंग के आधार पर लंबे समय तक मौजूद रहा। 1948 में पहली बार मानव समानता का विचार वहां स्वीकार किया गया, जबकि भारत ने 1947 में मात्र 17% साक्षरता के बावजूद सभी नागरिकों को बिना भेदभाव के मताधिकार दे दिया। उन्होंने कहा, “हमारी संस्कृति बताती है कि हर जीव-जंतु में परमात्मा का वास है। पशु और मानव की जरूरतें समान होती हैं, फर्क केवल नैतिकता और मर्यादा के ज्ञान का है। जो मानव इन्हें नहीं मानता, वह पशु समान है। ऐसे में दंड विधान की आवश्यकता उत्पन्न होती है।”
समय के अनुसार कानूनों में बदलाव जरूरी
राज्यपाल ने कहा कि दंड विधान समय और समाज की आवश्यकताओं के अनुसार बनाया जाता है। प्राचीन दंड व्यवस्था की आलोचना आज के संदर्भ में की जा सकती है, लेकिन यह समझना जरूरी है कि उस समय की परिस्थितियां क्या थीं। उन्होंने जोर दिया कि भारतीय न्याय संहिता में आज प्रतिशोध की बजाय न्याय, समानता और सुधार के सिद्धांतों को प्राथमिकता दी गई है।
विशेषज्ञों के विचार
डॉ. श्यामा प्रसाद मुखर्जी विवि, रांची के पूर्व कुलपति प्रो. तपन कुमार शांडिल्य ने कहा कि समाज के अस्तित्व के लिए नियम, मर्यादा और न्यायिक व्यवस्था अनिवार्य हैं। संस्कृत विवि के कुलपति प्रो. लक्ष्मी निवास पांडेय ने मनुस्मृति, याज्ञवल्लक्य स्मृति, नारद स्मृति और कौटिल्य के अर्थशास्त्र का हवाला देते हुए कहा कि प्राचीन दंड विधान को आधुनिक संदर्भ में नहीं अपनाया जा सकता, बल्कि उसका पुनर्मूल्यांकन करना होगा।
उत्तर प्रदेश के समाजसेवी नरेंद्र कुमार त्यागी ने भी संगोष्ठी में विचार व्यक्त किए। कुलपति प्रो. संजय कुमार चौधरी ने अतिथियों का स्वागत करते हुए कहा कि रिसर्च विवि का दर्जा मिलने के बाद लनामिवि राज्य में अग्रणी उच्च शिक्षण संस्थान के रूप में उभर रहा है और नई शिक्षा नीति (NEP) के तहत नए कोर्स शुरू किए जा रहे हैं।
सत्र में प्रमुख उपस्थिति
संगोष्ठी के उद्घाटन सत्र का संचालन संयोजक प्रो. जीवानंद झा ने किया। इस अवसर पर संस्कृत विवि के पूर्व कुलपति प्रो. देवनारायण झा, डॉ. बैद्यनाथ चौधरी बैजू, विवि के संकायाध्यक्ष, विभागाध्यक्ष, शिक्षक, शोधार्थी, छात्र-छात्राएं और जिला प्रशासन के अधिकारी मौजूद रहे।
राज्यपाल का सारगर्भित संदेश
राज्यपाल आरिफ मोहम्मद खान ने कहा, “दंड आदर्श प्राप्त करने का माध्यम है। यह केवल अपराधी को सजा देने के लिए नहीं, बल्कि समाज में न्याय, अनुशासन और शांति स्थापित करने के लिए है। समय के साथ दंड व्यवस्था में निरंतरता और परिवर्तन दोनों की आवश्यकता है, ताकि समाज प्रगतिशील और न्यायपूर्ण बन सके।”