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अमेरिका का रूस विरोधी विधेयक और भारत पर कूटनीतिक दबाव

विदेश डेस्क, श्रेया पांडेय |

अमेरिका की संसद ने एक महत्वपूर्ण विधेयक पारित किया है, जिसका उद्देश्य रूस पर आर्थिक और रणनीतिक प्रतिबंधों को और कड़ा करना है। यह विधेयक ऐसे समय में आया है जब रूस–यूक्रेन युद्ध दो साल पूरे कर चुका है और वैश्विक राजनीति एक नए दौर में प्रवेश कर चुकी है। इस विधेयक की सबसे खास बात यह है कि इसमें भारत और चीन जैसे देशों का नाम लेकर यह संकेत दिया गया है कि यदि वे रूस के साथ अपने व्यापारिक और सामरिक संबंध जारी रखते हैं, तो उन्हें भी अप्रत्यक्ष रूप से नकारात्मक प्रभाव झेलने पड़ सकते हैं।

इस विधेयक में रूस के साथ व्यापार कर रहे देशों पर प्रतिबंध लगाने के प्रावधान हैं। अमेरिका चाहता है कि भारत रूस से कच्चे तेल की खरीद को कम करे और गेहूं, डेयरी उत्पाद तथा मकई जैसे कृषि उत्पादों के अमेरिकी निर्यात के लिए अपने बाजार खोल दे। अमेरिका की यह नीति "कैरट एंड स्टिक" रणनीति को दर्शाती है — एक ओर व्यापार के लाभ दिखाए जा रहे हैं, तो दूसरी ओर दबाव भी बनाया जा रहा है।

भारत ने इस मुद्दे पर अभी तक कोई प्रत्यक्ष प्रतिक्रिया नहीं दी है, लेकिन विदेश मंत्रालय के सूत्रों के अनुसार, भारत अपनी "रणनीतिक स्वायत्तता" की नीति पर कायम है। भारत ने रूस के साथ ऊर्जा, रक्षा और उर्वरक जैसे क्षेत्रों में गहरे रिश्ते बना रखे हैं, जो उसके लिए किफायती और सामरिक दृष्टिकोण से आवश्यक हैं।

विशेषज्ञ मानते हैं कि यह स्थिति भारत के लिए एक बड़ा कूटनीतिक संतुलन साधने की चुनौती है। अमेरिका भारत को अपने रणनीतिक गठबंधन QUAD और इंडो-पैसिफिक रणनीति में एक अहम भागीदार मानता है, लेकिन साथ ही वह भारत की रूस के साथ निकटता को लेकर चिंतित भी रहता है।

यह विधेयक आने वाले समय में भारत की विदेश नीति और व्यापारिक फैसलों पर प्रभाव डाल सकता है। यदि भारत अमेरिका की मांगों के अनुसार रूस से दूरी बनाता है, तो उसे ऊर्जा और रक्षा क्षेत्र में विकल्प ढूंढने होंगे। वहीं यदि भारत रूस के साथ व्यापार जारी रखता है, तो उसे अमेरिकी प्रतिबंधों का सामना करना पड़ सकता है।

इस पूरी स्थिति का एक सकारात्मक पहलू यह है कि भारत अब वैश्विक स्तर पर इतना महत्वपूर्ण हो चुका है कि उसकी नीतियों और निर्णयों को लेकर विश्व शक्तियां गंभीर रूप से विचार कर रही हैं। भारत के लिए यह समय अपनी रणनीतिक स्थिति को चतुराई से इस्तेमाल करने का है; ताकि वह ना सिर्फ अपने हितों की रक्षा कर सके, बल्कि वैश्विक राजनीति में एक निर्णायक शक्ति के रूप में उभर सके।