नेशनल डेस्क, नीतीश कुमार।
छठ महापर्व बिहार, उत्तर प्रदेश, झारखंड सहित पूरे देश में आस्था और लोक परंपरा का सबसे बड़ा पर्व माना जाता है। यह पर्व चार दिनों तक मनाया जाता है, जिसमें दूसरे दिन का विशेष नाम है ‘खरना’। खरना व्रतियों के लिए न केवल कठिन तपस्या का आरंभ है, बल्कि शुद्धता, संयम और सामाजिक सौहार्द का प्रतीक भी है।
क्या होता है ‘खरना’?
छठ महापर्व के दूसरे दिन व्रती पूरे दिन निर्जला (बिना पानी) उपवास रखते हैं। सूर्यास्त के बाद स्नान-ध्यान कर, व्रती मिट्टी के चूल्हे पर आम की लकड़ी से गुड़ की खीर और गेहूं की रोटी (या पूरी) बनाते हैं। इस प्रसाद को पूरे पवित्र भाव से सबसे पहले सूर्य देवता और छठी मैया को अर्पित किया जाता है। इसके बाद व्रती इस भोग को स्वयं ग्रहण करते हैं और फिर परिवार तथा समाज में भी बांटते हैं.
धार्मिक और सामाजिक महत्व
खरना से शुरू होता है 36 घंटे का कठिन निर्जला उपवास, जिसमें व्रती अगले दिन उगते और डूबते सूर्य को अर्घ्य देने तक कुछ खाते-पीते नहीं। यह व्रत संतान सुख, परिवार की खुशहाली, स्वास्थ्य और समाज की समृद्धि के लिए किया जाता है। मान्यता है कि खरना के बाद छठी मैया का घर में आगमन होता है, और उनकी कृपा से हर मनोकामना पूरी होती है।
परंपरा और शुद्धता का समावेश
खरना मतलब केवल उपवास नहीं, बल्कि अपने मन, विचार और कर्म को पूर्णतः शुद्ध और अनुशासित करना। पूजा के सभी नियमों का कठोरता से पालन, वातावरण की सफाई और बाल-बच्चे समेत पूरे परिवार का एकजुट होना, इस पर्व को और भी भावनात्मक बना देता है। यही नहीं, प्रसाद की निर्मलता और उसे आत्मीयता से बांटने की परंपरा, सामाजिक एकता और प्रेम का प्रतीक है।







