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न्यायमूर्ति वर्मा के मामले में सुप्रीम कोर्ट में सुनवाई: आउटहाउस में नकदी विवाद पर बहस तेज

नेशनल डेस्क, मुस्कान कुमारी

नई दिल्ली: इलाहाबाद उच्च न्यायालय के वर्तमान न्यायाधीश और पूर्व में दिल्ली उच्च न्यायालय के न्यायाधीश यशवंत वर्मा के आधिकारिक आवास के आउटहाउस में भारी मात्रा में बिना हिसाब की नकदी मिलने के विवाद ने सुप्रीम कोर्ट में एक महत्वपूर्ण कानूनी और संवैधानिक बहस को जन्म दिया है। इस मामले की सुनवाई सुप्रीम कोर्ट की एक पीठ, जिसमें न्यायमूर्ति दीपंकर दत्ता और न्यायमूर्ति ऑगस्टिन जॉर्ज मसीह शामिल हैं, ने शुरू की है। यह मामला, जिसे XXX बनाम भारत सरकार और अन्य (W.P.(C) No. 699/2025) के रूप में दर्ज किया गया है, न केवल न्यायिक आचरण बल्कि संवैधानिक प्रक्रियाओं और न्यायपालिका की स्वतंत्रता पर भी सवाल उठाता है।

आउटहाउस में आग और नकदी की खोज  

14 मार्च 2025 को, दिल्ली में न्यायमूर्ति वर्मा के आधिकारिक आवास के आउटहाउस या स्टोररूम में आग लगने की घटना ने इस विवाद को शुरू किया। आग बुझाने के दौरान, दमकलकर्मियों और पुलिस ने वहां जली और आधी जली हुई 500 रुपये की नोटों की भारी मात्रा देखी। प्रारंभिक अनुमानों में नकदी की राशि लगभग 15 करोड़ रुपये बताई गई, हालांकि इसकी आधिकारिक पुष्टि नहीं हुई। दमकलकर्मियों द्वारा लिए गए वीडियो और तस्वीरों में जलते हुए नोटों के ढेर दिखाई दिए, जिसके बाद यह मामला सार्वजनिक और मीडिया के बीच चर्चा का विषय बन गया।

इस घटना के बाद, तत्कालीन मुख्य न्यायाधीश (CJI) संजीव खन्ना ने तीन सदस्यीय आंतरिक जांच समिति गठित की, जिसमें पंजाब और हरियाणा उच्च न्यायालय के तत्कालीन मुख्य न्यायाधीश शील नागू, हिमाचल प्रदेश उच्च न्यायालय के तत्कालीन मुख्य न्यायाधीश जी.एस. संधवालिया, और कर्नाटक उच्च न्यायालय की न्यायाधीश अनु सिवरमन शामिल थे। समिति ने 55 गवाहों, जिसमें न्यायमूर्ति वर्मा और उनकी बेटी शामिल थे, से पूछताछ की और वीडियो व तस्वीरों जैसे इलेक्ट्रॉनिक साक्ष्यों की जांच की। मई 2025 में सौंपी गई अपनी रिपोर्ट में, समिति ने निष्कर्ष निकाला कि आउटहाउस में नकदी मौजूद थी, जो न्यायमूर्ति वर्मा और उनके परिवार के “प्रच्छन्न या सक्रिय नियंत्रण” में थी। समिति ने कहा कि वर्मा इस नकदी की मौजूदगी के लिए कोई विश्वसनीय स्पष्टीकरण देने में विफल रहे और केवल “सीधे इनकार या साजिश का अस्पष्ट दावा” किया।

CJI की सिफारिश और महाभियोग की प्रक्रिया
  
समिति की रिपोर्ट के आधार पर, CJI खन्ना ने न्यायमूर्ति वर्मा को इस्तीफा देने की सलाह दी। जब वर्मा ने इनकार कर दिया, तो CJI ने राष्ट्रपति द्रौपदी मुर्मू और प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को एक पत्र भेजकर महाभियोग की कार्यवाही शुरू करने की सिफारिश की। इसके बाद, वर्मा को इलाहाबाद उच्च न्यायालय में स्थानांतरित कर दिया गया, और इलाहाबाद उच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश को निर्देश दिया गया कि वे उन्हें जांच लंबित रहने तक कोई न्यायिक कार्य न सौंपें। इस बीच, जलती हुई नकदी का एक वीडियो सार्वजनिक होने से विवाद और बढ़ गया, जिसके बाद 100 से अधिक सांसदों ने 21 जुलाई 2025 से शुरू होने वाले संसद के मानसून सत्र में महाभियोग प्रस्ताव लाने के लिए हस्ताक्षर किए।

न्यायमूर्ति वर्मा का सुप्रीम कोर्ट में याचिका 
 
न्यायमूर्ति वर्मा ने सुप्रीम कोर्ट में एक रिट याचिका दायर की, जिसमें उन्होंने कई बिंदुओं पर सवाल उठाए। उनकी याचिका में निम्नलिखित मुख्य चुनौतियां शामिल हैं:  

  1. आंतरिक जांच समिति की रिपोर्ट: वर्मा ने तर्क दिया कि जांच ने प्राकृतिक न्याय के सिद्धांतों का उल्लंघन किया, क्योंकि उन्हें जवाब देने का उचित अवसर नहीं दिया गया। उन्होंने कहा कि समिति ने सबूत का बोझ उलट दिया, जिससे उन पर बिना स्पष्ट साक्ष्य के आरोपों को नकारने की जिम्मेदारी डाली गई।
  2. CJI की महाभियोग सिफारिश: वर्मा ने CJI के राष्ट्रपति और प्रधानमंत्री को लिखे पत्र को असंवैधानिक बताया, क्योंकि संविधान के अनुच्छेद 124 और 218 और जजेज (इन्क्वायरी) एक्ट, 1968 के तहत किसी जज को हटाने का अधिकार केवल संसद के पास है।
  3. आंतरिक जांच प्रक्रिया की वैधता: वर्मा ने आंतरिक जांच तंत्र की संवैधानिक वैधता पर सवाल उठाया, यह कहते हुए कि यह वैधानिक समर्थन के बिना है, संसद के अधिकार को प्रभावित करता है, और न्यायिक स्वतंत्रता को कमजोर करता है।  

वर्मा ने अपनी याचिका में दावा किया कि आग लगने के समय वह दिल्ली में नहीं थे, केवल उनकी बेटी और वृद्ध मां वहां मौजूद थीं। उन्होंने नकदी के स्वामित्व या जानकारी से इनकार किया और आरोपों को “मात्र संदेह और अप्रमाणित धारणाओं” पर आधारित बताया। उन्होंने यह भी कहा कि जांच ने महत्वपूर्ण सवालों का जवाब नहीं दिया, जैसे कि नकदी किसने रखी, कितनी थी, क्या वह असली थी, आग का कारण क्या था, और क्या वर्मा 15 मार्च को नकदी के अवशेष हटाने के लिए जिम्मेदार थे।

सुप्रीम कोर्ट में सुनवाई: कपिल सिब्बल के तर्क
  
28 जुलाई 2025 को सुप्रीम कोर्ट में सुनवाई के दौरान, वरिष्ठ अधिवक्ता कपिल सिब्बल, मुकुल रोहतगी, राकेश द्विवेदी, और सिद्धार्थ लूथरा ने न्यायमूर्ति वर्मा का प्रतिनिधित्व किया, जबकि भारत सरकार की ओर से सॉलिसिटर जनरल तुषार मेहता ने पक्ष रखा।  

मुख्य तर्क:  

  • मिसकंडक्ट का कोई सबूत नहीं: सिब्बल ने तर्क दिया कि आउटहाउस में नकदी मिलना संविधान के अनुच्छेद 124 के तहत “मिसकंडक्ट” या “सिद्ध अक्षमता” का आधार नहीं बनता। उन्होंने कहा, “अगर आउटहाउस में नकदी मिली है, तो जज का क्या व्यवहार माना जाए? कोई व्यवहार का आरोप ही नहीं है, मिसकंडक्ट तो दूर की बात है।“
  • संवैधानिक प्रक्रिया का उल्लंघन: सिब्बल ने CJI की सिफारिश को असंवैधानिक बताया, क्योंकि जज को हटाने का अधिकार केवल संसद के पास है। उन्होंने कहा कि CJI का पत्र संसद को प्रभावित कर सकता है, और राष्ट्रपति व प्रधानमंत्री इस प्रक्रिया में “बाहरी” हैं।
  • आंतरिक जांच की खामियां: सिब्बल ने जांच प्रक्रिया को दोषपूर्ण बताया, जिसमें औपचारिक आरोप, क्रॉस-एग्जामिनेशन, और उचित सबूत जैसे सुरक्षात्मक उपाय नहीं थे। उन्होंने कहा कि वर्मा ने जांच में भाग लिया, यह उम्मीद करते हुए कि नकदी का स्वामित्व स्पष्ट होगा, लेकिन समिति इसमें विफल रही।
  • सार्वजनिक खुलासा और मीडिया ट्रायल: सिब्बल ने तर्क दिया कि सुप्रीम कोर्ट द्वारा प्रारंभिक जांच सामग्री का सार्वजनिक करना और अंतिम रिपोर्ट का लीक होना एक मीडिया ट्रायल का कारण बना, जो संवैधानिक योजना का उल्लंघन करता है।  

कोर्ट की टिप्पणियां  

  • मिसकंडक्ट पर: न्यायमूर्ति दत्ता ने कहा कि नकदी का मिलना बैंगलोर प्रिंसिपल्स ऑफ ज्यूडिशियल कंडक्ट के तहत “मिसकंडक्ट” हो सकता है, जो न्यायिक अखंडता पर जोर देता है। सिब्बल ने जवाब दिया कि यह मिसकंडक्ट हो सकता है, लेकिन जज को हटाने के लिए पर्याप्त नहीं है।
  • जांच प्रक्रिया पर: पीठ ने सवाल उठाया कि वर्मा ने जांच में भाग क्यों लिया और इसके समाप्त होने तक इंतजार क्यों किया। न्यायमूर्ति दत्ता ने पूछा, “क्या आपने वीडियो हटाने के लिए कोर्ट का रुख किया? जांच खत्म होने का इंतजार क्यों किया?”
  • प्रक्रियात्मक अनियमितताओं पर: न्यायमूर्ति दत्ता ने स्पष्ट किया कि आंतरिक समिति के निष्कर्ष सबूत नहीं माने जाते और इस स्तर पर शिकायत का आधार नहीं होना चाहिए। उन्होंने याचिका के प्रारूप की भी आलोचना की, जिसमें समिति की रिपोर्ट शामिल नहीं थी और पक्षकारों को गलत तरीके से सूचीबद्ध किया गया था।
  • CJI के पत्र पर: जब सिब्बल ने CJI के पत्र का उल्लेख किया, तो न्यायमूर्ति दत्ता ने पूछा कि उन्हें इसका विवरण कैसे पता, क्योंकि यह सार्वजनिक नहीं था। सिब्बल ने कहा कि सिफारिश की प्रक्रिया ही दोषपूर्ण थी।  

कोर्ट के निर्देश  

पीठ ने सिब्बल को मुख्य तर्कों का एक पेज का सारांश और पक्षकारों की सही सूची जमा करने का निर्देश दिया। मामले की अगली सुनवाई 30 जुलाई 2025 को निर्धारित की गई है।  

मामले के व्यापक निहितार्थ  

यह मामला न्यायिक स्वतंत्रता, जवाबदेही, और आंतरिक जांच तंत्र की वैधता पर सवाल उठाता है। वर्मा का तर्क है कि आंतरिक जांच प्रक्रिया संवैधानिक सुरक्षा को कमजोर करती है। इस मामले का फैसला न्यायपालिका के आंतरिक जवाबदेही तंत्र और जजों को हटाने की संवैधानिक प्रक्रिया को प्रभावित कर सकता है।