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विदेश डेस्क, श्रेया पांडेय |
भारत और रूस के बीच ऊर्जा के क्षेत्र में सहयोग कोई नया नहीं है, लेकिन हाल के वर्षों में यह संबंध और अधिक रणनीतिक बन गया है। रूस-यूक्रेन युद्ध के बाद पश्चिमी देशों, विशेष रूप से अमेरिका, ने रूस पर कई आर्थिक प्रतिबंध लगाए। ऐसे समय में जब यूरोपीय देशों ने रूस से तेल खरीद बंद कर दी, भारत ने अपने राष्ट्रीय हितों को प्राथमिकता देते हुए रूस से सस्ती दरों पर कच्चा तेल आयात करना जारी रखा।
हाल ही में अमेरिका के पूर्व राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रम्प और वर्तमान विदेश मंत्री मारको रुबियो ने भारत की इस नीति की कड़ी आलोचना की है। ट्रम्प ने कहा कि भारत को अमेरिका का समर्थन तब नहीं मिलना चाहिए जब वह रूस जैसे देशों से तेल खरीद रहा है। इसके अलावा, अमेरिकी अधिकारियों ने भारतीय वस्तुओं पर 25% आयात शुल्क लगाने की चेतावनी भी दी है। यह बयान ऐसे समय में आया है जब अमेरिका और भारत के बीच द्विपक्षीय संबंध पहले से मजबूत हो रहे थे।
इन बयानों के जवाब में भारत ने स्पष्ट किया कि तेल की खरीद एक रणनीतिक निर्णय है, जो देश की ऊर्जा सुरक्षा और वैश्विक ऊर्जा स्थिरता से जुड़ा हुआ है। भारत ने कहा कि उसे अपनी विशाल आबादी की ऊर्जा जरूरतों को पूरा करने के लिए किफायती और सतत स्रोतों की आवश्यकता है, और रूस से तेल खरीद इसी दिशा में उठाया गया एक कदम है।
विश्लेषकों का मानना है कि भारत की यह नीति न केवल उसके ऊर्जा सुरक्षा लक्ष्य को मजबूत करती है, बल्कि उसे अंतरराष्ट्रीय मंच पर एक स्वतंत्र और आत्मनिर्भर शक्ति के रूप में भी स्थापित करती है। रूस से तेल खरीद से भारत को आर्थिक लाभ हुआ है, जिससे उसके चालू खाता घाटे में भी सुधार हुआ है।
भारत का यह रुख वैश्विक कूटनीति में एक सशक्त संकेत है कि वह किसी एक ध्रुव पर झुकाव नहीं रखता, बल्कि अपने राष्ट्रीय हितों को सर्वोपरि मानता है। भले ही अमेरिका की आलोचना तीव्र हो, भारत ने यह दिखा दिया है कि वह दबाव में झुकने वाला देश नहीं है।
सरकार के इस निर्णय को घरेलू समर्थन भी प्राप्त है, क्योंकि इससे पेट्रोलियम उत्पादों की कीमतों पर नियंत्रण रखने में सहायता मिली है। यह एक संतुलित रणनीति का प्रतीक है जिसमें भारत ने वैश्विक दबावों को समझदारी से संभालते हुए अपने राष्ट्रीय हितों की रक्षा की है। इस पूरे घटनाक्रम से यह स्पष्ट है कि भारत अब वैश्विक मंच पर एक सशक्त, स्वतंत्र और दूरदर्शी राष्ट्र के रूप में उभर रहा है।